
किसी भी क्षेत्र मे बुरी होती है और हिंसक होना हमारी पाशविक प्रवृत्ति को ही दर्शाता है।फिर वह हिंंसा चाहे देश, धर्म या राजनीतिक…… किसी भी कारणों से पनपती हो। उसका शिकार अमूमन साधारण आदमी ही क्यों होता हैं यह गहन चिंतन का विषय होना चाहिए।तब यह लगता है कि उपरोक्त सभी क्षेत्र के स्वयंभू इन साधारण लोगों का इस्तेमाल एक टूलकिट की तरह करते हैं क्या?यह प्रश्न है ?एक साधारण दर्जी को अपनी भावाभिव्यक्ति की फीस अपनी जान की कीमत देकर चुकानी पडी जबकि सोशल मीडिया मे घमासान मचा हुआ हुआ है ऐसे अनेक मुद्दों पर।तब लगता है कन्हैया,रियाज और गास मोहम्मद क्या इन तीनों का इस्तेमाल हथियारों के रूप मे किया गया है।रियाज और मुहम्मद की फितरत में एक वर्ग विशेष, एक धर्म विशेष के लिए नफरत इस कदर कूट कर भरी गई यह उनके मारने और साथ ही वीडियो बनाने के अंदाज से ही पता चलता है। मारने के अलावा वो दोनों जिस का आंतक पैदा चाहते थे उसमें वे पूरी तरह सफल रहे लेकिन टारगेट कन्हैयालाल की हत्या यह महज एक संयोग नहीं साजिश हो सकती है

जिसकी कीमत उसे चुकानी पडी और खामियाजा पूरा परिवार आजीवन भोगेगा।कोई भी फौरी सहायता उनके परिवार के दुख के लिए राहत का एक फाहा मात्र है।यह बात पूरे तौर पर सही नहीं है कि समय के साथ गहरे जख्म भर जाते है। जख्म दिखावे तौर पर भर भी जाऐं तो निशान ताउम्र नहीं मिटते।इस पीडा़ को वे ही समझ सकते हैं जिन्होंने खोया है।स्मृतियों के साथ जीवित रहना किसी लाईलाज पीडा के साथ जीवित रहने जैसा होता है।जिस समाज मे हम जी रहे है उस समाज के चंद मठाधीशों और उनके अनुयायियों द्वारा जो जहर विभिन्न माध्यमों द्वारा फैलाया जा रहा है उसके पीछे मकसद होगें आम लोगों के लिए ऐसे मकसदों को जानना जरूरी है तभी घृणा और हिंसा के उमडते ज्वार पर कारगर रोक लगाई जा सकती है।जहां एक ओर -50डिग्री से +50 तक नेटवर्क कव्हरेज से दूर तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद हमारी सेना देशहित के लिए अपनी जान की बाजी तक लगाने नहीं हिचकिचाती है वहीं चंद लोग भरपेट खाकर आरामदायक कमरों मे अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए देश को ही दांव पर लगा रहे हैं। सम्मान न सही, देश की अखंडता और एकता की जड़ों पर मट्ठा डालने का प्रयास न करें तो बेहतर होता।- आशा त्रिपाठी





